Sunday, January 28, 2018

डियर जिंदगी : जयपुर लिटरेचर फेस्‍टिवल; रास्‍ता न सही पगडंडी सही

बच्‍चों, युवाओं के लिए जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल आयोजन रास्‍ता न सही, लेकिन पगडंडी बनाने का काम तो करते ही हैं. बच्‍चों को उनका साथ मिलता है, जिनको वह पढ़ते सुनते आए हैं. उनके लिए यह कुछ ऐसा ही है, जैसा किसी किताब में नदी के बारे में पढ़ना और किसी दिन नदी किनारे बैठना.
रसूल हमजातोव मुझे उतने ही मेरे लगते हैं, जितने प्रेमचंद. दोनों के नजदीक जाकर दिल को सुकून मिलता है. जिंदगी को, खुद को समझने और हमारी समझ के आगे आ बैठे कुहासे से गुजरने में आसानी होती है. रसूल का विश्‍वप्रसिद्ध उपन्‍यास ‘मेरा दागिस्‍तान' इतना प्रिय है कि इसके मुख्‍य किरदार अबूतालिब से मेरी रोज़ ही बात हो जाती है. क्‍योंकि अबूतालिब हमारे एकदम पड़ोस में रहने वाले जैसे ही हैं.

अबूतालिब अक्‍सर मेरी तब मदद करते हैं, जब मैं निर्णय लेने से हिचकिचाने वाला होता हूं. जब कभी कोई मुश्किल घेरने की कोशिश करे. जब किसी भी पहाड़ से कोई भी चट्टान दरकने लगती है, मेरी ओर आने लगती है, अबूतालिब अचानक से उस चट्टान को आकर थाम लेते हैं. मुझे बचा लेते हैं. ऐसा रिश्‍ता है, मेरा उनके साथ! जिसे समझाया नहीं जा सकता, बस बताया जा सकता है.

‘जिंदगी’ के किस्‍से में यह किताबों का जिक्र इसलिए आया, क्‍योंकि मैं जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में‍ शामिल होने आया हूं. किताबों की महक के बीच दुनियाभर के 300 से अधिक लेखकों, विद्वानों और प्रकाशकों से मिलने में यह मेला खासा मददगार होता है. किताबों से आने वाली दोनों तरह की महक मुझे बेहद प्रिय है. पहली वह जो एकदम नई, ताजी किताब को पलटते हुए हमारे भीतर तक पहुंचती है. दूसरी वह जो पुरानी किताब को खोजते हुए मानो उसकी शिकायत के रूप में हम तक आती है कि ‘इतने दिन कहां रहे.’
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जयपुर लिटरेचर फेस्‍टिवल से मेरा रिश्‍ता कोई एक दशक का हो चला है. यहां कुछ दिन बिताना, खुद को ‘अमराई’ की छांव में पाने जैसा लगता है. आयुर्वेद के अनुसार बीमारी से उबरने में आम के पेड़ों यानी अमराई के आसपास बिताया समय बड़ा मददगार होता है. ‘साहित्‍य उत्‍सव’ में लेखकों के सानिध्‍य और सुनने का अवसर, किस्‍से, कहानियों की छांव भी जिंदगी में आए तनाव पर ‘अमराई’ जैसा असर करने की क्षमता रखते हैं.
बच्‍चों, युवाओं के लिए ऐसे आयोजन रास्‍ता न सही, लेकिन पगडंडी बनाने का काम तो करते ही हैं. बच्‍चों को उनका साथ मिलता है, जिनको वह पढ़ते सुनते आए हैं. उनके लिए यह कुछ ऐसा ही है, जैसा किसी किताब में नदी के बारे में पढ़ना और किसी दिन नदी किनारे बैठना.
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युवा, बच्‍चों के दिमाग में तकनीक का नकारात्‍मक असर इसलिए भी हुआ है, क्‍योंकि उनका अपने आसपास के जीवन, किताबों, मेलों और लेखकों से संवाद रुका नहीं खत्‍म होने की कगार पर है. किताबों से टूटते संबंध का सीधा असर उन्‍हें उस तकनीक के पास ले गया, जहां नीरसता और अकेलेपन के गहरे चक्रव्‍यूह हैं. इनका असर हम ‘ब्‍लू व्‍हेल' जैसे हादसों के रूप में देख रहे हैं.
इसलिए जितना संभव हो बच्‍चों को इस तरह के कार्यक्रम का हिस्‍सा बनाएं. इसमें कभी यह समझने की भूल नहीं करनी चाहिए कि बच्‍चों के लिए दिशा से भटकने, समय खराब करने जैसा मामला है. बल्कि इस तरह के संवाद का हिस्‍सा बनने से बहुत संभव है कि उन्‍हें अपने रास्‍तों को तलाशने, मुश्किल वक्‍त में जमीन से जुड़े रहने और संघर्ष करने का वह साथ मिल जाए, जिससे आपका ही बहुत सा तनाव कम हो जाएगा.

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